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What is difference between transfer deed and transfer of property by will ?

A Will differs from a deed in the following respects: (i) a deed operates eo instanti, i.e., from the date of its execution; a Will comes into operation on the death of the testator; (ii) a deed is ordinarily irrevocable, unless there is an express power of revocation; a Will can be revoked at any time by the testator during his life time. It is ambulatory and it becomes effective and irrevocable on the death of the testator; (iii) in case of mistake in a deed, the Court has power to rectify it; a Will cannot be rectified by any Court of law. No consideration is required for making a Will. Thus disposition of property takes place posthumously after the death of the testator. Therefore, there is no transfer eo instanti as in case of any other deed like a sale deed, gift, exchange, mortgage, lease or assignment. Koragappa Gowda Vs. Jinnappa Gowda and Ors. Citation: MANU/KA/0047/1998,ILR 1998 KAR 436, 1998 (1) KarLJ 402

दुकानदार यदि MRP से ज्यादा पैसे लिए तो ऐसे घर बैठे करें शिकायत

SMS के जरिये करें श‍िकायत:  उपभोक्ता मंत्रालय ने ग्राहकों के हितों की रक्षा के लिए कई कदम उठाए हैं. इसके तहत सरकार ने हेल्पलाइन नंबर समेत अन्य व्यवस्था तैयार की है. अगर कोई दुकानदार आप से धोखाधड़ी करता है या कोई कारोबारी आपको महंगे दामों पर सामान बेचता है, तो आप इसकी शिकायत 8130009809 पर एक एसएमएस भेजकर कर सकते हैं. जैसे ही आप अपनी शिकायत को इस नंबर पर एसएमएस के जरिये भेजेंगे. कंज्यूमर हेल्पलाइन की तरफ से आपसे संपर्क साधा जाएगा और आपकी समस्या का समाधान किया जाएगा.  टोल फ्री नंबर:  SMS के अलावा आप टोल फ्री कंज्यूमर हेल्पलाइन नंबर पर भी शिकायत दर्ज कर सकते हैं. अपनी शिकायत रजिस्टर करने के लिए आप 1800-11-4000 पर या फिर 14404 पर कॉल कर सकते हैं. एसएमएस की तरह ही यहां आपकी शिकायत दर्ज की जाएगी और उसका संभव समाधान या आगे आपको क्या करना है. इसकी जानकारी दी जाएगी.  ऑनलाइन करें श‍िकायत:  आप खुद को http://consumerhelpline.gov.in/ पोर्टल पर रजिस्टर कर सकते हैं और अपनी शिकायत दर्ज कर सकते हैं. यहां आप अपनी श‍िकायत की जानकारी, कंपनी का नाम और विवाद से जुड़े दस्तावेज भी अटैच कर सकते हैं.  इन बातों

कानून की इस महत्त्वपूर्ण जानकारी को वकील जनता तक पहुंचाएं- सुप्रीम कोर्ट

किसी नागरिक को जेल भेजते समय कई मजिस्ट्रेट अपने आदेश में लिखते हैं कि गुणावगुण पर टिप्पणी किए बिना जमानत प्रार्थना-पत्र निरस्त कर न्यायिक हिरासत में भेजना न्यायोचित समझता हूँ...        लेकिन 7 वर्ष या उससे कम सजा के आपराधिक प्रकरणों में यदि मजिस्ट्रेट ने ठोस कारण बताए बिना यांत्रिक तरीके से किसी नागरिक को पुलिस/न्यायिक हिरासत में भेजा तो मजिस्ट्रेट को नौकरी से हाथ भी धोना पड़ सकता है... सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाल के एक निर्णय में कहा है कि- 1. मजिस्ट्रेटों की विफलता के कारण गिरफ्तारी की शक्तियां, उद्दंडता का प्रतीक बनकर, पुलिस के भ्रष्टाचार का एक लाभप्रद स्रोत बन गई है। 2. गिरफ्तारी किसी भी मनुष्य के लिए प्रताड़ना तथा स्वतंत्रता पर रोक है। गिरफ्तारी मनुष्य पर ऐसा धब्बा छोड़ती है जिसको वह कभी जीवन में भूल नहीं सकता है. 3. पुलिस अपनी सामंतवादी छवि से अपने आप को मुक्त नहीं कर पाई है, पुलिस अपने आप को जनसामान्य के मित्र के रूप में भी स्थापित नहीं कर पाई है और जनता के लिए उत्पीड़न का हथियार ही साबित हुई है मजिस्ट्रेसी की विफलता ने इस समस्या को विकराल रूप दे दिया है. 4. सात वर्ष अथवा उससे कम

जानें भारत में महिलाओं के महत्वपूर्ण कानूनी अधिकार

1-शादीशुदा या अविवाहित महिलाए अपने साथ हो रहे अन्याय, प्रताड़ना, व घरेलू हिंसा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मामला दर्ज करा सकती है और  उसी घर में रहने का अधिकार पा सकती हैं जिसमे वे वर्तमान में रह रही हैं। इस कानून के अंतर्गत घर का बंटवारा कर महिला को उसी घर में रहने का अधिकार प्राप्त हो जाता है और उसे प्रताड़ित करने वालों को सजा का भी प्रावधान है।  साथ ही साथ यदि किसी महिला की इच्छा के विरूद्ध उसके पैसे, शेयर्स या बैंक अकाउंट का इस्तेमाल किसी के द्वारा किया जा रहा हो तो इस घरेलू हिंसा कानून का सहारा लेकर  इसे रोक सकती है। घरेलू हिंसा में महिलाएं खुद पर हो रहे अत्याचार के लिए भी सीधे संबंधित न्यायालय से गुहार लगा सकती है, इसके लिए वकील रखना जरुरी नहीं है। अपनी समस्या के समाधान के लिए पीड़ित महिला स्वयं भी अपना पक्ष रख सकती है या अपने वकील के माध्यम से अर्जी लगा सकती है। 2-विवाहित महिलाओं को  बच्चे की कस्टडी और मानसिक/शारीरिक प्रताड़ना का मुआवजा मांगने का भी उसे अधिकार प्राप्त है, इसके लिए वह जिले के कुटुंब न्यायलय में अर्जी लगा सकती है। यदि पति द्वारा बच्चे की कस्टडी पाने के लिए कोर्ट

जानिए कैसेे होता है किसी अपराधिक मामले में जमानत

Legal Update यदि कोई आपको गलत व झूठे मुकदमे में आपको गलत तरीके से फंसाया जा रहा है और पुलिस आपको गिरफ्तार करने की कोशिश कर रही है तो आप क्या करेंगे। आपके मन में सवाल पैदा हो सकता है की क्या बेल/जमानत बिना कोर्ट गए भी पुलिस थाने से हो सकता है ? इस संबंध में मैं विस्तार से जमानत बेल के बारे में आप सभी के मन में चल रहे सवाल जवाब व  विस्तृत जानकारी देने का भरसक प्रयास कर रहा हूं। ये आलेख आपको कैसा लगा कॉमेंट बॉक्स में जरूर लिखियेगा ताकि आपकी प्रतिक्रिया से मैं भी वाकिफ हो सकूं। सबसे पहले आईये आपको बताते है बेल/जमानत क्या होती है और कैसे किसी अपराधिक मामले में बेल लिया जाता है ?        यदि कोई व्यक्ति को कोई उसे अपराधिक मामले में झूठा केस कर फंसा रहा है और उसे गिरफ्तारी का भय सता रहा है या तो मामले में पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया हो तो इस दशा में जेल जाने से बचने के लिए या फिर जेल से बाहर निकलने के लिए पुलिस या कोर्ट से आदेश लेने की प्रक्रिया को ही जमानत या बेल कहते हैं . जमानत कितने तरह का होता है ==================== दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार जमानत 3 प्रकार की होती है 1. जमानती

बिना शादी पैदा हुए बच्चों को भी मिलेगा संपत्ति का हक

आज सुप्रीम कोर्ट ने अमान्य विवाह से हुए पैदा बच्चो के हक में सुनाया फैसला,  लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार यह फैसला केवल हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्तियों पर लागू होगा |यह फैसला भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने रेवनसिद्धप्पा बनाम मलिकार्जुन मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ के फैसले के संदर्भ में दिया था| इसमें कहा गया कि अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चे संपत्ति के हकदार हैं | वह अपने माता-पिता की संपत्ति में हिस्सा मांग सकते हैं| हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 16 (3) के तहत अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को वैधता प्रदान की जाती है परंतु पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं है केवल माता पिता की संपत्ति ही हिस्सेदारी में ले सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने प्राथमिकी के संबंध में निर्धारित कानून को फिर दोहराया और संक्षेप में जानकारी दी

सुप्रीम कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 में दिए गए कानूनी प्रक्रिया एवम प्रावधानों को विस्तार से बताया। इसके अनुसार  1. एफआईआर /प्राथमिकी रजिस्ट्रेशन-  एफआईआर का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है, जब प्राप्त जानकारी स्पष्ट रूप से संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करती हो ।  2. प्रारंभिक जांच-  यदि प्राप्त सूचना या जानकारी स्पष्ट रूप से संज्ञेय अपराध का संकेत नहीं देती है लेकिन जांच की आवश्यकता का सुझाव देती है तो प्रारंभिक जांच की जा सकती है। हालांकि, यह जांच पूरी तरह से यह निर्धारित करने पर केंद्रित होनी चाहिए कि संज्ञेय अपराध का खुलासा हुआ है या नहीं। ये देखना जरूरी है। 3. जांच परिणाम:  यदि प्रारंभिक जांच से संज्ञेय अपराध होने का खुलासा होता है तो एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए। इसके विपरीत यदि जांच यह निष्कर्ष पर पहुंचती है या निकालती है कि संज्ञेय अपराध का खुलासा नहीं किया गया तो संक्षिप्त कारणों सहित शिकायत को बंद करने का सारांश एक सप्ताह के भीतर सूचक या मुखबिर को तुरंत प्रदान किया जाना चाहिए।  4. पुलिस अधिकारी की जिम्मेदारी -  एफआईआर दर्ज न करने पर दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ का